बीजिंग । सालों की अदावत भूलकर सऊदी अरब और ईरान जैसे दो अलग-अलग ध्रुवों पर रहने वाले मुस्लिम देश रमजान के पवित्र महीने में साथ आए हैं। मार्च में ही दोनों देशों ने कूटनीतिक संबंधों की बहाली का फैसला लिया था। गुरुवार को दोनों देशों के विदेश मंत्रियों ने बीजिंग में मुलाकात की। 7 साल बाद दोनों देशों के नेताओं की यह कोई औपचारिक मीटिंग हुई है। सऊदी अरब की सरकारी मीडिया ने मुलाकात की तस्वीर साझा की है। इसमें सऊदी विदेश मंत्री प्रिंस फैसल बिन फरहान अपने ईरानी समकक्ष हुसैन आमिर अब्दुल्लाहियान के साथ नजर आ रहे हैं। दोनों एक पारंपरिक चीनी पेंटिंग के सामने खड़े हाथ मिलाते दिख रहे हैं। इसके बाद वे एक कॉन्फ्रेंस रूम में मुलाकात के लिए जाते हैं। मार्च में ही सऊदी अरब और ईरान के बीच कूटनीतिक संबंधों की बहाली का फैसला लिया गया था। यह मीटिंग भी चीन के दखल के चलते ही हुई थी। 
हालांकि बड़ा सवाल यह है कि दो इस्लामिक देशों में दोस्ती के लिए चीन आखिर क्यों इतना प्रयास कर रहा है। एक्सपर्ट्स कहते हैं कि चीन को लगता है कि ईरान और सऊदी अरब की दोस्ती कराने से चीन को प्रतीकात्मक लाभ होगा और तेल के तौर पर भी बड़ा फायदा मिलेगा। दोनों देश दुनिया के बड़े तेल उत्पादक हैं और चीन को लगता है कि इनसे संबंध बेहतर करने से तेल की निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित होगी। इसके अलावा सऊदी अरब को अपने पाले में रखकर अमेरिका एक ओर ईरान को किनारे रख रहा था, वहीं मुस्लिम देशों में भी पैठ बनाए हुए थे।
चीन ने इन देशों में दोस्ती कराके अमेरिकी दखल को कम कर अपनी ताकत में इजाफा किया है। दरअसल बीते साल अप्रैल में ही शी जिनपिंग ने लगातार तीसरा कार्यकाल मिलने के बाद ग्लोबल सिक्योरिटी इनिशिएटिव की बात की थी। इसके तहत शी ने दुनिया भर में चीन की पैठ बढ़ाने और अमेरिका के मुकाबले एक वैकल्पिक ग्लोबल ऑर्डर तैयार करने का ऐलान किया था। इसके तहत चीन अब अरब और खाड़ी देशों में अपना दखल बढ़ाया है। वह इन्हीं देशों से अपनी जरूरत का 40 फीसदी कच्चा तेल भी आयात करता है।  
दिसंबर में ही जिनपिंग ने सऊदी का भी दौरा किया था। दशकों बाद किसी चीनी राष्ट्राध्यक्ष की यह सऊदी अरब की विजिट थी। इस दौरे से ही साफ हो गया था कि चीन अब मुस्लिम देशों में रिश्तों की नई इबारत लिखने की तैयारी में है। सऊदी अरब का रुख भी पिछले कुछ महीनों से बदला दिख रहा है। बीते साल ही उसने रूस के साथ एक समझौता करते हुए तेल उत्पादन में कटौती का फैसला कर लिया था। इस पर अमेरिका ने ऐतराज भी जताया था, लेकिन सऊदी अरब पीछे नहीं हटा था। तभी से माना जा रहा है कि सऊदी अरब अमेरिका की बजाय चीन और रूस के ब्लॉक में जाता दिख रहा है।